इविवि 138वां स्थापना दिवस: 10 साल का सफर, जीवनभर का गौरव – AU के पूर्व छात्र ने सुनाए संस्मरण

आपातकाल और आंदोलनों के बीच लंबा खिंचा कोर्स, फिर भी इलाहाबाद विश्वविद्यालय बना जीवन की सबसे बड़ी पूंजी – वरिष्ठ पत्रकार डॉ. प्रदीप भटनागर
इलाहाबाद विश्वविद्यालय का आज 138वां स्थापना दिवस है. इस अवसर पर पूर्व छात्र और वरिष्ठ पत्रकार डॉ. प्रदीप भटनागर ने अपने छात्र जीवन के संस्मरण साझा किए. 1970 के दशक का वह दौर जब आपातकाल, आंदोलनों और स्थगित होती परीक्षाओं के बीच पढ़ाई आसान नहीं थी, फिर भी इलाहाबाद विश्वविद्यालय उनके जीवन की सबसे बड़ी पूंजी बना.
मेरा विश्वविद्यालय, मेरा गौरव, मेरा समय
आज मेरे विश्वविद्यालय का स्थापना दिवस है. मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय के उस दौर का भोक्ता विद्यार्थी रहा हूं, जो स्वातंत्र्योत्तर भारतीय इतिहास का सबसे अराजक, ऐतिहासिक, संघर्ष और बदलाव भरा काल रहा है। इसी कारण मेरे समय के हजारों विद्यार्थियों के 2 वर्ष इलाहाबाद विश्वविद्यालय में व्यर्थ चले गए.
जुलाई 1973 में मैंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बीए में प्रवेश लिया था. कुछ महीनों बाद ही जय प्रकाश नारायण के आंदोलन की सुगबुगाहट परिसर में दिखाई सुनाई पड़ने लगी. देखते देखते परिसर में आंदोलनों की बाढ़ आ गई और स्थानीय अखबारों में आए दिन लीड छपने लगी- यूनिवर्सिटी क्लोज्ड साइन डाई। इन्हीं सबके बीच परीक्षाओं के बहिष्कार और बार- बार परीक्षाओं के आयोजन के चलते बीए का हमारा 2 साल जून 1975 की जगह नवंबर 1976 में पूरा हुआ. पूरे साढ़े 3 साल बाद। वह भी इस कारण क्योंकि देश में इमरजेंसी लगा दी गई थी. इसके बावजूद हमें मार्कशीट और डिग्री 1975 लिखी ही दी गई.नतीजतन दिसंबर 1976 में हमें एमए हिन्दी में प्रवेश मिला.एमए में प्रवेश मिला ही था कि कुछ महीने बाद इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी हटाकर देश में आम चुनाव की घोषणा कर दी. विश्वविद्यालय फिर पुराने जमाने में लौट गया.
परिसर तरह- तरह के आंदोलनों से भर गया. इसका परिणाम यह निकला कि एमए का दो वर्ष का हमारा पाठ्यक्रम फिर 3 वर्ष तक घिसट गया. यानी 1977 लिखी हमारी एमए की मार्कशीट और डिग्री हमें 1979 में मिल सकी. विश्वविद्यालय की हर परीक्षा मैं अच्छे अंकों से पास करता रहा, लेकिन 4 साल का कोर्स पूरा करने में मुझे और मेरे दौर के साथियों को साढ़े 6 साल लग गए.
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जनवरी 1980 में मैंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में डीफिल में प्रवेश लिया और अगस्त 1983 में मुझे डीफिल डिग्री मिल गई. पत्रकारिता में रुचि होने के कारण मैं अध्यापन की जगह पत्रकारिता की ओर बढ़ गया. इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्ययन का मेरा कालखंड कैसा भी रहा हो, लेकिन विश्वविद्यालय में गुजारे 10 वर्ष मेरे जीवन की अमूल्य निधि हैं और मुझे अपने विश्वविद्यालय पर गर्व है. इलाहाबाद विश्वविद्यालय का छात्र होने के कारण ही मुझे पूरे जीवन मान सम्मान मिलता रहा.
विश्वविद्यालय के सम्मान का एक रोचक किस्सा आपको सुनाता हूं. दैनिक भास्कर में जब मैं न्यूज़ एडिटर से एडिटर बनाया गया तो मुझे बधाई देने लगभग सारे सहयोगी मेरे चैम्बर में आए. बधाई देने के साथ हसी मजाक चल रहा था. मेरी कार्यशैली पर भी बात हो रही थी, तभी मेरे एक साथी न्यूज़ एडिटर ने कहा कि सुनो तुम बहुत योग्य नहीं हो. बात इतनी है कि तुम इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के प्रोडक्ट हो और हम सब राजस्थान और मध्य प्रदेश की यूनिवर्सिटीज के. सिर्फ इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के नाम पर तुम्हें 40 परसेंट नंबर अतिरिक्त मिल जाते हैं. इसके बाद जो ठहाका गूंजा, वह मैं कभी नहीं भूला.
आज मेरे विश्वविद्यालय का 138वां स्थापना दिवस है, मन की अतल गहराइयों से मैं अपने विश्वविद्यालय का आभार व्यक्त करता हूं.
– वरिष्ठ पत्रकार डॉ प्रदीप भटनागर की कलम से
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